Zara Si Baat Pe Har Rasm Tod Aaya Tha
ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था Jaan Nissar Akhtar